[प्रतिष्ठानपुर का राजभवन : पुरुरवा की महारानी औशीनरी अपनी दो सखियों के साथ] औशीनरी तो वे गये? निपुणिका गये ! उस दिन जब पति का पूजन करके लौटीं, आप प्रमदवन से संतोष हृदय मॅ भरके लेकर यह विश्वास, रोहिणी और चन्द्रमा जैसे हैं अनुरक्त, आपके प्रति भी महाराज अब वैसे प्रेमासक्त रहेंगे, कोई भी न विषम क्षण होगा, अन्य नारियॉ पर प्रभु का अनुरक्त नहीं मन होगा, तभी भाग्य पर देवि ! आपके कुटिल नियतमुसकाई, महाराज से मिलने को उर्वशी स्वर्ग से आई. औशीनरी फिर क्या हुआ ? निपुणिका देवि, वह सब भी क्या अनुचरी कहेगी ? औशीनरी पगली ! कौन व्यथा है जिसको नारी नहीं सहेगी ? कह्ती जा सब कथा, अग्नि की रेखा को चलने दे, जलता है यदि हृदय अभागिन का,उसको जलने दे. सानुकूलता कितनी थी उस दिन स्वामी के स्वर मॅ ! समझ नहीं पाती, कैसे वे बदल गए क्षण भर मॅ ! ऐसी भी मोहिनी कौन-सी परियाँ कर सकती हैं, पुरुषॉ की धीरता एक पल मॅ यॉ हर सकती हैं ! छला अप्सरा ने स्वामी को छवि से या माया से? प्रकटी जब उर्वशी चन्द्नी मॅ द्रुम की छाया से, लगा, सर्प के मुख से जैसे मणि बाहर निकली हो, याकि स्वयं चाँदनी स्वर्ण-प...