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हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है                                              हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या हैतुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

                                          शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
                                          कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

                                           ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
                                           वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

                                           चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
                                           हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

                                         जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
                                         कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

                                          रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
                                         जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

                                        वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
                                        सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

                                       पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
                                       ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

                                       रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
                                       तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

                                       बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
                                       वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है 

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है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिये / गोपालदास "नीरज

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छिप-छिप अश्रु बहाने वालों / गोपालदास "नीरज"

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है। सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुआ आँख का पानी और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है। माला बिखर गयी तो क्या है खुद ही हल हो गयी समस्या आँसू गर नीलाम हुए तो समझो पूरी हुई तपस्या रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है। खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर केवल जिल्द बदलती पोथी जैसे रात उतार चांदनी  पहने सुबह धूप की धोती वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों! चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है। लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिकन न आई पनघट पर, लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर, तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों! लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है। लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गन्ध फूल की, तूफानों तक ने छेड़ा पर, खिड़की बन्द न हुई धूल की, नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों! कुछ मुखड़ो...